Menu
blogid : 15532 postid : 619494

गुम न हो जाएं हमारी संस्कृति…………..

My View
My View
  • 9 Posts
  • 47 Comments

किसी भी चीज को फलने-फूलने के लिए जैसे उसकी देखभाल करना बेहद जरूरी है, उसी तरह किसी भी भाषा को विकसित करने के लिए उसकी सेवा करनी जरूरी होती है,ताकि वो फल-फूल सके। उस भाषा में ज्ञान- विज्ञान से संबंधित नयी-नयी खोज होते रहना, नयी- नयी किताबें छपते रहना आदि उस भाषा के जीवित रहने की शर्त हैं, और जिस भाषा के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। वह भाषा विलुप्त होने के कगार पर आ जाती है। ऐसा ही कुछ हो रहा है हमारी आदिवासी भाषाओं के साथ। झारखण्‍ड राज्य के गठन को एक दशक हो जाने के बावजूद अभी तक यहां के आदिवासी भाषाओं को उनका सम्मान नहीं मिला है। यहां तक कि राज्य में आदिवासी अकादमी का भी गठन नहीं किया गया है। संथाली भाषा के प्रमुख साहित्यकार भागवत मुर्म जिन्हें 16 मार्च 1985 को पद्मश्री से तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने विभूषित किया था, उन्होंने संथाली भाषा में रामायण तो लिखी, लेकिन अपने जीवनकाल में उसे प्रकाशित नहीं कर सके। राज्य सरकार इस दिन मातृभाषा दिवस के रूप में तो मनाती है, लेकिन इन भाषाओं को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर रही है।

देश में करीब आठ सौ अस्सी भाषाएं हैं, जो कि वर्तमान में बनी हुई हैं। गायब होने वाली भाषाएं देश में फैले घुमंतू समुदायों की हैं, जिसमें आदिवासी समुदाय भी आते है। इस कारण बिहार-झारखंड के भाषाओं पर भी संकट मंडरा रहा है। इनमें झारखंड की सात भाषाएं सोनारी, कैथी, लिपि, कुरमाली, भूमिज, पहाड़िया, बिरजिया और बिरहोर शामिल हैं। ज्ञातव्य है कि झारखंड में नौ आदिवासी एवं क्षेत्रीय भाषाओं को द्वितीय राज्यभाषा का दर्जा दिया है और संथाली भाषा भी संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल है फिर भी झारखंड में इसे उचित सम्मान नहीं दिया जा रहा है।

अभी झारखंड में सिर्फ गिने-चुने आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं की औपचारिक शिक्षा दी जा रही है। यूनेस्को की महानिदेशक इरीना वोकोवा के अनुसार ‘‘मातृभाषाएँ जिनमें कोई भी अपना पहला शब्द बोलता है, वहीं उनके इतिहास एवं संस्कृति की मूल बुनियाद होती है और यह बात सिद्ध भी हो चुकी है।  स्कूल के शुरुआती दिनों में वही बच्चे बेहतर ढंग से सीख पाते हैं जिन्हें उनकी मातृभाषाओं में पढ़ाया जाता है।” इसी तरह आदिवासी भाषाओं का संरक्षण और संवर्धन का काम अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है। इसमें समय-समय पर उठाए गए कदमों से ही अच्छे परिणाम मिलेंगे। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आदिवासी भाषाओं में महत्वपूर्ण परंपरागत ज्ञान  संरक्षित हैं।

भाषा विशेषज्ञों का मानना है कि आदिवासी भाषाएँ ज्ञान के भण्डार को अपने आप में समेटे हुए हैं, जिसका इतिहास करीबन चार हजार साल पुराना है। यदि इस दिशा में प्रयास तेज नहीं हुए तो आने वाले सौ वर्ष में 15 लाख लोगों के द्वारा बोली जाने वाली कुडुख भाषा भी विलुप्त हो जाएगी। हिन्दी को समर्थ बनाने के लिए आदिवासी भाषाओं को बचाना जरूरी है क्योंकि मातृभाषाएं बचेंगी, तभी राष्ट्रभाषा की उन्नति होगी।  सिंधु घाटी सभ्यता के कई स्थलों सहित अन्य ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई में ऐसे अनेक अभिलेख मिले हैं, जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। कई विद्धानों द्धारा उन्हें आदिवासी भाषाओं से मिलाकर समझने का प्रयास किया जा रहा है, ऐसे में इन भाषाओं के लुप्त होने से बेहद महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी के लुप्त होने का भी खतरा पैदा हो गया है। विशेषज्ञों के अनुसार जनजातीय भाषाओं का मौखिक साहित्य लिखित साहित्य से काफी समृद्ध है, लेकिन भाषाओं को जीवित रखने के लिए वर्तमान समय के अनुसार अब उन्हें लिखित साहित्य का रूप देना आवश्यक है।

आठवीं अनुसूची में शामिल 22  भाषाओं में  संथाल एकमात्र झारखंडी जनजातीय भाषा है, जबकि कई ऐसी भाषाएं इस सूची में शामिल हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या झारखंड की अन्य जनजातीय भाषाओं से भी काफी कम है। कई राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने एक से अधिक भाषाओं को राजभाषा का दर्जा दिया है। लेकिन झारखंड में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की सांस्कृतिक परिषद की रिपोर्ट के अनुसार इस सदी में दुनिया क सात हजार भाषाओं में से 63 सौ भाषाएं मर जाएंगी। झारखंड में सादरी (नागपुरी), कुरमाली, खोरठा और पंचपरगनिया चार प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएं हैं। इसमें सादरी नागवंशी राजाओं के संरक्षण के कारण झारखंड के आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच समान रूप से लोकप्रिय है। इसने जहां झारखंड के सदान और आदिवासी समुदायों को एक सूत्र में बांधे रखा है, वह सूबे की संपर्क भाषा बन कर उभरी है। झारखंड की संस्कृति को दर्शाने वाली सूबे के सभी 32 जनजातीय समुदायों की 32 भाषाओं में से 27 भाषाएं  विलुप्त हो चुकी हैं, जबकि पांच बड़ी जनजातीय भाषाओं को केंद्रीय भाषा संस्थान मैसूर ने देश के बारह संक्रमण काल से गुजर रही भाषाओं की सूची में डाल दिया है। असुर और बिरहोर जैसी आदिम जनजातीय समुदाय के मातृभाषाएँ प्रायः विलुप्ति के कगार पर आ चुकी है। इस गंभीर स्थिति को देखते हुए झारखंड की आदिवासी भाषाओं को बचाना आवश्यक हो गया है।

अगर देखा जाए तो यूनेस्को  को हमारी भाषाओं की चिंता है, लेकिन झारखंड के सरकार को नहीं।  भाषाओं का सम्मान करना ही समाज और उसके सदस्यों के साथ बिना भेदभाव किए शांतिपूर्ण सह अस्तित्व को सुनिश्चित करने की प्रमुख कुंजी है। फिर भी ये बात झारखंड की सरकार नहीं समझ रही है। सिर्फ पद्म श्री से सम्मानित डॉ राम दयाल मुंडा की जयंती मनाने से कुछ नहीं होगा, बल्कि आदिवासी संस्कृति को विश्व पटल पर स्थापित करना, उनके लिए सच्ची श्रद्धाजंलि होगी।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh